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मीरा बहन - बीन भी हूं मैं तुम्हारी रागिनी भी हूं

इंग्लैंड के अति संभ्रांत व संपन्न परिवार में 22 नवंबर 1892 को जिस मेडेलीन स्लेड का जन्म हुआ, उसे बापू ने 1925 में मीरा बहन बना दिया | पिता सर एडमंड स्लेड नौसेना के उच्चाधिकारी थे | बाद में वे कमांडर-इन-चीफ भी बनाए गए | जब बच्चे खिलौनों से खेलते हैं, मेडेलीन उनसे विरक्त रहती थी | आडंबर उसे नहीं भाता था | अपनी आत्मकथा में वे लिखती हैं: “पांच साल की उम्र से ही कभी किसी पंछी की आवाज या पेड़ों की सरसराहट मुझे कहीं दूर ले जाती थी | मैं किसी ‘अज्ञात प्रेरणा’ के वशीभूत उस छुपे सत्य को खोजने घोड़े की पीठ पर बैठ, अपने नाना के गांव वाले विशाल घर से खेतों, जंगलों, नदियों और सागर के आसपास जाकर प्रकृति से अपना नाता जोड़ा करती थी | मुझे उस ‘अज्ञात’ में भय के बजाय अपार आनंद का अनुभव होता !”

मेडेलीन अपने पिता के साथ 1908 में 15 साल की उम्र में भारत आई | दो साल रह कर वापस चली गई | 1920 में युवा मेडेलीन उसी ‘अज्ञात’ की खोज में पश्चिम के महान संगीतकार बीथोवन से जा जुड़ीं | बीथोवन ने सूरदास की ही तरह अपने समस्त चिंतन को संगीत में ढाल कर आम जन के लिए सुबोध बना लिया था | मेडेलीन बीथोवन की ऐसी दीवानी हुई कि प्रथम विश्वयुद्ध के दरम्यान जब जर्मनी इंग्लैंड का परम शत्रु बना हुआ था, मेडेलीन इंग्लैंड में बीथोवन के संगीत समारोहों का आयोजन कर रही थीं | वे किसी ‘अज्ञात प्रेरणा’ से बंधी जर्मनी के बॉन में स्थित उनके घर तक जा पहुंची थीं, जहां बीथोवन का जन्म हुआ था और जहां बीथोवन की समाधि है | वे लिखती हैं कि बीथोवन की कब्र पर पहुंच मैं सुध-बुध भूल गई और मुझे लगने लगा कि कोई ‘अज्ञात ताकत’ मुझे बुला रही है | ऐसी ही अवस्था में 1923 में मेडेलीन की मुलाकात फ्रांस के महान दार्शनिक और साहित्यकार रोमां रोला से हुई | रोला ने मेडेलीन को न सिर्फ बीथोवन के संगीत की गहराइयों से वाकिफ कराया बल्कि महात्मा गांधी नामक उस शख्सियत से भी परिचित कराया, जिसे उन्होंने तब तक न देखा था, न सुना था लेकिन जिसे वे ईसा मसीह का अवतार-सा मानते थे | मेडेलीन को लगा कि शायद यह वही ‘अज्ञात’ है जिसका उन्हें इंतजार है |

1925 में वह ‘अज्ञात’ मेडेलीन को भारत खींच लाया – गांधी के पास! पश्चिम की मेडेलीन स्लेड पूरब की ‘मीरा बहन’ बनकर जिस तरह गांधीमय हो गई, वैसी दूसरी मिसाल नहीं मिलती है | साबरमती आश्रम के नियमों का वे सैनिक अनुशासन से पालन करने लगीं | स्वावलंबन का जो पहला पाठ उन्होंने बापू से सीखा था वह उनका जीवनाधार बन गया | वे न केवल खान-पान, रहन-सहन और वेश-भूषा से हिंदुस्तानी बन गई, उन्होंने सेवा और ब्रह्मचर्य का व्रत भी ले लिया |

1923-33 में आजादी की लड़ाई चरम पर थी | सरकारी दमन पराकाष्ठा पर था | कांग्रेस को गैरकानूनी घोषित कर, बापू को गिरफ्तार कर लिया गया था | समाचार पत्रों पर सेंसर लगा था | मीरा बहन अन्याय व दमन की इन खबरों की साप्ताहिक जानकारी दुनिया भर में भेजने लगीं | जैसे ही खुफिया तंत्र को यह पता चला, उसने मीरा बहन को तीन माह के लिए जेल भेज दिया | जेल से छूटते ही वे फिर बंबई लौटीं और अपना काम करने लगीं | इस बार उनको एक साल की जेल मिली | 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वे तीसरी बार जेल गई | बापू के कई ऐतिहासिक पत्रों व बयानों की वे विश्वसनीय वाहिका बनीं |

भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा के साथ ही बापू समेत सारे बड़े नेताओं की गिरफ्तारी हुई | बापू पुणे के आगा खान महल में कैद रखे गए | मीरा बहन भी उनके साथ थीं | 1944 में वे भी बापू के साथ ही छुटीं| जेल से छूटने के बाद मीरा बहन ने बापू से इजाजत मांगी कि वे उत्तर भारत में कहीं रहकर स्वतंत्र रूप से काम करना चाहती हैं | बापू की इजाजत मिली और वे अपनी जगह खोजने निकलीं | वे ऐसी जगह चाहती थीं, जो हिमालय से दूर न हो, जहां खेती, पशुपालन और कटाई-बुनाई करना संभव हो | काफी खोज-बीन के बाद मुलदासपुर के प्रमुख श्री अमीर सिंह ने रुड़की और हरिद्वार के बीच 10 एकड़ जमीन, अंग्रेजों की टेढ़ी नजर से डरे बगैर उन्हें दान में दे दी | मीरा बहन ने यहां अपना ‘किसान आश्रम’ शुरु किया | बिचपुरी गांव पथरी राव नदी की गाद से परेशान था | पहला काम उससे मुक्त करने का हुआ | 1945-46 में उत्तर प्रदेश के ‘अधिक अन्न उपजाओ कार्यक्रम’ में सरकार ने उन्हें अपना अवैतनिक सलाहकार नियुक्त किया | वे हिमालय के बीच कहीं पशु, मानव और प्रकृति के तालमेल से एक ऐसा स्थान बनाना चाहती थीं, जहां बापू की कल्पना को मूर्त रूप दिया जा सके | 1948 में वन विभाग ने उन्हें ऋषिकेश में 2146 एकड़ जमीन लीज पर दी | यहां उन्होंने ‘पशुलोक आश्रम’ बनाया | उनके इस आश्रम में पंडित नेहरू सरीखी हस्तियां उनसे मिलने आती रहती थीं |

इस सारी भाग-दौड़ का असर स्वास्थ्य पर हुआ और उन्हें टिहरी के प्रतापनगर में आराम के लिए रखना पड़ा | वे राजा के महल में मेहमान रहीं | 15 अगस्त 1947 को देश की आजादी की जश्न से बापू भी दूर थे और मीरा बहन भी | आजादी के साथ ही देश में मची भयंकर मार-कात से वे बहुत व्यथित थीं और महाराजा के महल से निकलकर बापू के ‘महल’ पहुंचीं |

नोआखली से लौट कर बापू बिड़ला भवन में रह रहे थे | बापू के साथ कुछ दिन रहकर और उनकी व्यथा देख-समझकर वे 18 दिसंबर 1947 को ‘पशुलोक’ वापस लौटीं | और वहीं 30 जनवरी 1948 को बापू की हत्या की खबर उन्हें मिली –“मैं स्तब्ध रह गई और किंकर्तव्यविमूढ़ !” उन्होंने दिल्ली जाने के बजाय अपनी कुटिया में ही रहने का निश्चय किया | दिल्ली से निकलते वक्त बापू के कहे शब्द उन्हें याद आ रहे थे: “मेरी चिंता न करना | ईश्वर पर भरोसा रखना | वही मुझे बनाएगा या बिगाड़ेगा | वही तो सब कुछ बनाता है !” और फिर उनको लगा जैसे बापू कह रहे हों – ‘ईश्वर पर भरोसा रखो और जहां हो वहीं रहो | आखिरी दर्शन का कोई अर्थ नहीं है | वह आत्मा, जिससे तुमको प्रेम है, वह सदा तुम्हारे साथ है’ | मीरा बहन दिल्ली नहीं गई | वे दिल्ली पहुंचीं फरवरी 1948 में और उस जगह पर गई, जहां गोली लगने के बाद बापू गिरे थे | फिर वे राजघाट समाधि पर गई और फिर अपने ‘पशुलोक’ लौट आईं | उन्होंने लिखा: “दिल्ली इस बार मुझे मुर्दों का शहर लगा | पंडित नेहरू पीले और निस्तेज थे, सरदार पटेल मौन ! सब जगह निराशा, नि:शब्द शून्यता पसरी पड़ी थी |”

अब ‘पशुलोक के प्रति सरकारी अधिकारीयों का रवैया बदलने लगा था | मीरा बहन ने ‘पशुलोक सेवा मंडल’ नामक एक दूसरी संस्था भी बनाई लेकिन अपेक्षित सरकारी सहायता नहीं मिली | परेशान होकर उन्होंने सरकार को जमीन वापस कर दी | वे अब ऐसी जगह चाहती थीं जहां गांव और पशुओं की सेवा वे अपने ढंग से कर सकें | इस खोज में उन्होंने हिमालय में 200 मील यात्रा की और अंतत: पहुंचीं टिहरी से 28 मील दूर, भिलंगना नदी के ऊपर, चीड़ व देवदार के जंगल में बसी गेंवली ! वन विभाग ने उनको दो नाली जगह लीज पर दी | यहां बना उनका ‘गोपाल आश्रम’ | तब देश में सामुदायिक ग्रामीण विकास योजना चलाई जा रही थी | उन्होंने नेहरूजी से विचार-विमर्श कर, भिलंगना घाटी में काम की योजना बनाई | उन्होंने ‘बापू राज’ नाम से अपनी पत्रिका मई 1952 से शुरु की | लेकिन न ‘गोपाल आश्रम’ और न ‘बापू राज’ उस तरह चल सकी, जैसा वे चाहती थीं और न नौकरशाही के साथ उनका ताल-मेल बैठ सका | सब कुछ बंद करना पड़ा और 1954-56 के बीच वे कश्मीर चली गईं और कश्मीर के मुख्यमंत्री बख्शी गुलाम मुहम्मद के अनुरोध पर ‘कंगन’ नामक देवदार के सुंदर जंगल में रहीं | इस जगह का नाम उन्होंने ‘गऊबल’ रखा | वे चाहती थीं कि यहां विदेशी नस्ल की गायों को पाला जाए | लेकिन सरकारी नीति विदेशी गायों को प्रोत्साहित करने की नहीं थी | अत: इंग्लैंड की ‘डेक्स्टर’ नस्ल की गायों को हिमाचल भेज कर उन्हें अपना यह प्रयोग बंद करना पड़ा | वे लिखती हैं: “अब मैं यहां क्या करूं ? ... किसान आश्रम, पशुलोक आश्रम, गोपाल आश्रम और गऊबल सब मेरे जीवन से सपनों की तरह निकल गए | अब सरकारी मदद से कोई योजना नहीं बनेगी...” वे व्यथित भी थीं और हताश भी ! जिस उत्साह से भरकर वे हिमालय आई थीं, वह समाप्त हुआ जा रहा था | कभी धनाभाव, कभी कार्यकर्ताओं की कमी और कभी सरकारी तंत्र की घुसपैठ उन्हें परेशान करतीं रही और उन्हें काम बंद करना पड़ा |

तीन साल कश्मीर में रहने के बाद मीरा बहन 1957 में टिहरी गढ़वाल लौटीं | इस बार चंबा के ऊपर रानीचौरी के पास मेलधार आकर रहीं | अब बनाया ‘पक्षी कुंच’ | उनके व्यक्तित्व की संपूर्णता, उनका अदम्य साहस, ज्ञान और बापू में अटूट विश्वास उन्हें बार-बार प्रयोग के लिए उकसाता था | वे आजाद भारत के साथ आने वाली नई समस्याओं को और विकास व आधुनिकता के नाम पर आ रही प्रतिकूलताओं को समझ पा रही थीं | इन सबको समेटकर वे लगातार लिखने में जुट गई | जंगलों की अंधाधुंध कटाई से होने वाले नुकसान, हिमालय में बांज के पेड़ों के कम होते जाने के दुष्परिणाम, रासायनिक खेती के मुकाबले जैविक खेती की विज्ञानिकता, गौ-पालन की जरूरत, पश्चिमी सभ्यता की अविवेकी नकल, अपनी संस्कृति और भाषा के प्रति उदासीनता, कुटीर और ग्रामोद्योग की उपेक्षा जैसे विषयों पर उनके तर्कसंगत, स्पष्ट विचार लगातार हमें सावधान करते रहे | वे अब बड़ी शिद्दत से कहने लगी थीं कि वे विश्व नागरिक की भूमिका में ही रहती व सोचती हैं | वे अपने को खरा भारतीय मानती थीं और भारतीयता से उनका मतलब उस सनातन परंपरा से होता था, जो पूरी दुनिया को एक परिवार मानती है, न कि एक बाजार |

मीरा बहन बापू की बेटी की तरह थीं | उनका सारा जीवन बापूमय था और बापू के लोग ही उनके अपने संगी-साथी थे | डॉ. सुशीला नैयर उनके सबसे निकट थीं, जिनके साथ वे जेल में भी रही थीं | महादेव देसाई ने लिखा है : लंदन में राजसी ठाट में पली यह युवती गांधीजी के प्रति जिस निष्ठा और समर्पण से अपना जीवन बदलने में सफल रही, वैसा दूसरा उदाहरण नहीं मिलता है | उन्होंने भारतीय गांवों में लंबे समय तक मानव मल की प्रत्यक्ष सफाई ही नहीं की बल्कि नया आदमी बनाने के काम मैं भी जुटी रहीं | वे बहुत ही सौम्य और शालीन थीं और बेहद निडर थीं | शराबबंदी के अभियान में शराबी जब उनके साथ बुरा बरताव करते थे तब उनकी शालीनता और दृढ़ता देखते बनती थीं | बारिश के दिनों में भी वे टूटी-फूटी झोंपड़ी में शांति से रहती थीं | वे अपना डेरा-डंडा संभाल कर सतत चलती रहने वाली किसी ध्यानमग्न साधिका-सी लगती थीं |”

1925 से 1944 तक, लगातार 20 साल वे बापू के साथ साबरमती और सेवाग्राम आश्रमों में रहीं | 1945 से 1958 तक 14 साल वे उत्तर भारत के हिमालय के इलाकों में रहीं | 1959 से 1982 के बीच के 23 साल वे ऑस्ट्रिया व पश्चिम में रहीं | 1956 में कश्मीर से लौटकर वे फिर से टिहरी गढ़वाल आ गई | यहीं बीथोवन और रोमां रोला की पुरानी यादों ने उनको इस तरह झकझोर कर बुलाया कि उन्होंने हमेशा-हमेशा के लिए भारत छोड़ने का मन बना लिया था | 1958 के अप्रैल में कृष्णमूर्ति गुप्ता को उन्होंने लिखा कि “मुझे एक ‘अनजानी ताकत’ फिर से बुला रही है | मैं इसकी अनसुनी नहीं कर सकती... शायद आज के भारत से ज्यादा बापू के विचारों की जरूरत पश्चिम में है |” 28 जनवरी 1959 को भारत छोड़ने से पहले वे कुछ दिन राष्ट्रपति भवन में डॉ. राजेंद्र प्रसाद के साथ रहीं और फिर इंग्लैंड होती हुई वियना चली गईं | जंगलों के निकट, बिलकुल शांत-एकांत, प्राकृतिक सौंदर्य से भरी वह सुंदर सी जगह आखिरी दिनों तक उनका ठिकाना बनी रही |

अपनी जीवनी में उन्होंने लिखा है: “मेरे लिए ईश्वर और बापू दो ही थे ! अब वे दोनों एक हो गए हैं | मैं अपने अतीत पर विचार करती हूं तो पाती हूं कि मैं बापू को अपना ‘पूरा नहीं दे सकी, क्योंकि कुछ था कि जो मेरे अंदर दबा था और मुझे बोझिल किए रहता था | बापू ने बार-बार मुझे इसकी चेतावनी दी थी | बापू के जाने के बाद ‘पक्षी कुंज’ में बीथोवन और रोमां रोला की यादों ने मुझे बेचैन कर दिया था | मैं फिर से रोमां रोला की दी बीथोवन की पुस्तकें पढ़ने लगी | इससे मुझे नई दिशा का भान हुआ |... कोई चीज मेरे अंदर आंदोलित हो रही थी – कोई बुनियादी चीज ! मैंने आंखें बंद कर लीं | हां, यह ‘उसी पुरुष की आवाज’ थी जिसके संगीत से मैं तीस सालों से अलग पड़ गई थी | मैंने बीथोवन की आत्मा की आवाज सुनी और उसके सान्निध्य का अनुभव किया | मुझे एक नया जीवन-दर्शन और नई प्रेरणा मिली – उस संगीत में डूब कर मैंने अपनी आत्मा का साक्षात्कार किया... यह मेरे जन्म के तीसरे और अंतिम अध्याय की शुरुआत थी...”

अपने आखिरी पलों तक वे बापूमय जीवन जीती रहीं | उनकी जरूरतें बहुत सीमित थीं | वे खुद टाइपिंग करतीं, कपड़े धोतीं, खाना पकातीं, घर की सफाई करतीं, मिलने वालों का सत्कार भी करतीं, रेडियो-दूरदर्शन पर व्याख्यान देतीं और लेखादि लिखतीं | उमर के साथ-साथ स्वास्थ्य भी गिरने लगा | वियना जाने के बाद आर्थिक परेशानियां भी घेरने लगी | 1977-78 में केंद्रीय गांधी स्मारक निधि के मंत्री देवेंद्र कुमार उनसे लंदन में मिले और उन्होंने देखा कि मीरा बहन के पास इतना पैसा भी नहीं था कि वे अपने लिए गरम कपड़े सिला सकें | वे तीन सालों से, पहले के बचे पुराने गर्म कपड़ों से ही गुजरा कर रही थीं | फिर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी खुद उनसे मिलीं और उन्होंने तुरंत नई व्यवस्था बनाई |

3 नवंबर 1980 को उन्होंने एक पत्र में लिखा कि इंदिराजी की सहानुभूति से मेरी आर्थिक दिक्कतों का समाधान हो गया | 1981 में भारत सरकार ने ‘पद्मविभूषण’ से उनका सम्मान किया | उन्होंने बड़ी विनम्रता से राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री को लिखा कि मैं यह सम्मान पाकर अत्यधिक द्रवित हूं | इन सालों में मैंने किया ही क्या है ! मेरी अंतश्चेतना ने जिधर प्रेरित किया, मैंने वही किया | फिर भी मैं आप सबकी अत्यंत आभारी हूं |

20 जुलाई 1982 को वे उसी ‘अनंत लौ’ में विलीन हो गई, जिससे छिटक कर उन्होंने बापू की राह धरी और आजादी की, सिद्धांतों की लड़ाई लड़ी और जीवन जीने की एक कला विकसित की | आस्ट्रिया में मृतक के दाहसंस्कार का रिवाज नहीं है पर मीरा बहन की इच्छा के मुताबिक उनके अनन्य सेवक रामेश्वर दत्त ने उनकी चिता को अग्नि दी | फिर उनकी भस्मी भारत लाई गई और उसी ऋषिकेश और उसी हिमालय में प्रवाहित कर दी गई जिसमें उन्होंने खुद को पाया और खोया था |

सौजन्य : 'गांधी मार्ग', नवंबर-दिसंबर २०१७