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गांधी से घात

- राजमोहन गांधी

गांधी की पूजा की जाए या उनका विद्रूप किया जाए, दोनों समान ही अर्थहीन कसरतें हैं। वे इन सबकी पहुंच से बहुत दूर व अलग जा चुके हैं। लेकिन अपनी क्षुद्रताओं में हम ऐसा करने से बाज नहीं आते हैं क्योंकि हर झूठे, नकली और चालाक को ऐसा लगता है कि गांधी के पर्दे के पीछे सारा कृत्य-अकृत्य छिपाया जा सकता है। लेकिन ऐसी कभी हुआ नहीं है क्योंकि गांधी का पर्दा भी बेहद पारदर्शी है।

मेरा प्रधानमंत्री से इतना ही निवेदन है कि कृपया यह कहना बंद कीजिए कि सीएए द्वारा सरकार "महात्मा गांधी के सपनों और उनकी इच्छाओं को पूरा करने का काम कर रही है।" प्रधानमंत्री जो कह रहे हैं वैसा कुछ भी नहीं है। मैं यह इसलिए नहीं कह रहा हूं कि मैं गांधीजी का पोता हूं बल्कि इसलिए कह रहा हूं कि मैं उनका जीवनीकार हूं। जैसी योजना के साथ सीएए के सारे फायदों से मुसलमानों को वंचित किया जा रहा है उससे यह कहने में मुझे जरा भी संकोच नहीं है कि यह गांधी के सपनों को पूरा करना नहीं बल्कि उनको मटियामेट करना है। निःसंदेह गांधीजी चाहते थे कि पाकिस्तान अपने अल्पसंख्यकों की रक्षा करे और भारत वहां सताए लोगों की मदद करे। लेकिन वे यह भी चाहते थे कि भारत भी अपने अल्पसंख्यकों की रक्षा करे। इतना ही नहीं, विभाजन जिस भयानक विनाश को साथ लेकर आया उसके बाद भी गांधी यह सपना देखने की हिम्मत रखते थे कि एक दिन पाकिस्तान से निकल आए हिंदू और सिख शरणार्थी पाकिस्तान के अपने घरों में वापस लौट सकेंगे, और भारत से पाकिस्तान निकल भागे मुसलमान भारत के अपने घरों में लौट सकेंगे।

जिस महीने में उनकी हत्या हुई उसी जनवरी के महीने में पाकिस्तान के एक अनाम-से मुसलमान नेता ने उन्हें यह कह कर चमत्कृत-सा कर दिया था कि वे वह दृश्य देखना चाहते हैं कि पाकिस्तान से शरणार्थी बनकर भारत गए हिंदू-मुसलमानों का पचास मील लंबा काफिला पाकिस्तान लौट रहा है और गांधीजी उसकी अगुआई कर रहे हैं। हमें यह बात उस व्यक्ति ने बताई, जो इसका प्रत्यक्षदर्शी था। 29 सालों तक (1919-1948) गांधीजी के निजी सचिव रहे प्यारेलालजी ने अपने अपूर्व ग्रंथ 'पूर्णाहुति' में यह प्रसंग दर्ज किया है। दिल्ली के तब के प्रमुखतम नागरिकों ने जो लिखित संकल्प-पत्र आमरण अनशन पर बैठे गांधीजी को दिया था और जिसने गांधीजी को अपना अंतिम उपवास तोड़ने का रास्ता दिया था, उस संकल्प में भी लिखा गया है: "यहां से पलायन कर पाकिस्तान चले गए मुसलमान यदि वहां से वापस भारत आना चाहेंगे तो हम उस पर कोई आपत्ति नहीं करेंगे और वे पहले की तरह ही यहां अपना रोजगार-धंधा भी कर सकेंगे।"

1947 के सभी शरणार्थी अपने-अपने घरों को लौटेंगे - गांधीजी का यह सपना शायद यथार्थ से बहुत दूर का था। लेकिन ऐसा कहना कि गांधीजी चाहते थे कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से अल्पसंख्यक हिंदू भारत लौटें याकि सीएए के तहत ऐसा करना गांधीजी के सपनों को पूरा करना है, इतिहास के साथ एक भट्दा मजाक है।

इतिहास से ऐसा मजाक उनको रास आ सकता है जो मानते हैं कि 1947 में भारत केवल हिंदुओं के लिए और पाकिस्तान केवल मुसलमानों के लिए बनाया गया था। यह सच है कि 14 अगस्त 1947 को मुस्लिम बहुल इलाकों के साथ पाकिस्तान अस्तित्व में आया और हिंदू बहुल इलाके भारत में ही रहे। ऐसा हुआ फिर भी स्वतंत्र भारत के नेताओं ने, भारत की जनता ने, भारत के संविधान ने भारत को एक ऐसे राष्ट्र की शक्ल दी जो सबके लिए होगा - जहां एक निरीश्वरवादी, एक बौद्ध, एक ईसाई, एक यहूदी, एक मुसलमान, एक सिख भी एक हिंदू के बराबर का अधिकार रखकर यहां रह व जी सकता है। कोई ऐसा कहे कि गांधी मात्र गैर-मुसलमानों को ही सहायता करने के पक्षधर थे याकि वे राज्य की सुविधाओं से मुसलमानों को वंचित रखना चाहते थे तो उसे नये इतिहास का आविष्कारक ही मानना होगा।

सत्य से परे जाने और उसे प्रचारित करने के इस दौर में भी इतिहास की ऐसी तोड़-मरोड़ काम नहीं आएगी। इतिहास को इतिहास की तरह देखना ही मुनासिब होगा। लोगों की याददाश्त कमजोर होती है और इस दौर में हम व्हाट्सएप से अलग कुछ पढ़ते नहीं हैं। इसलिए 1947 की खूंरेजी की याद करवा कर पाकिस्तानियों से यह कहना कि मुसलमान ही थे जो इसके सबसे बड़े शिकार हुए याकि भारत को यह बतलाना कि हिंदुओं और सिखों को ही सारा कुछ झेलना पड़ा, आसान काम है। लेकिन इतिहास का कोई भी गंभीर अध्येता जानता है कि 1947 की अभागी खूंरेजी में, और बाद में मची भगदड़ में सभी-के-सभी समान रूप से पिसे थे - हिंदू भी और मुसलमान भी। शायद ही किसी बांग्लादेशी या पाकिस्तानी को आज इसका इल्म होगा कि 1947 तक कराची, लाहौर, रावलपिंडी, मुलतान और ढाका में हिंदू और सिखों की बड़ी आबादी रहती थी। और इक्का-दुक्का भारतीय ही यह जानते होंगे कि 1947 तक अमृतसर, जालंधर और लुधियाना में मुसलमानों की आबादी आधी-आधी या आधी से भी ज्यादा थी।

हम अधिकांश भारतीयों को यह मालूम है कि 1946 के पतझड़ काल में नोआखाली में, जो अब बांग्लादेश में आता है, हिंदुओं पर जबरदस्त जुल्म हुए। लेकिन शायद ही किसी को मालूम हो कि नोआखाली की भयंकर वारदात के सप्ताह भर के भीतर-भीतर बिहार में मुसलमानों का उससे भी भयंकर कत्लेआम हुआ। यह बात तो भारत में सभी जानते हैं कि गांधीजी हिंदुओं में हिम्मत भरने के लिए और मुसलमानों में प्रायश्चित जगाने के लिए नोआखाली के गांव-गांव में पैदल घूमते रहे। लेकिन यह कितनों को पता है बिहार के राजनीतिक नेतृत्व से आमना-सामना होने पर गांधीजी ने उनसे क्या और किस तरह कहा ? बिहार के कौमी दंगों में अथक दौरा करते गांधीजी ने मार्च 1947 में बिहार के सर्वमान्य नेताओं से सार्वजनिक रूप से पूछाः "आप मुझे बताइए कि यह सच है या नहीं कि यहां जो कुछ हुआ है उसमें कांग्रेस-जनों की खुली भागीदारी रही है ? मुझे बताइए कि 132 लोगों की आपकी जो कमिटी है उनमें से कितने इसमें लिप्त थे ?... मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि आपकी आंखों के सामने 110 साल की उम्र वाली महिला का कत्ल हुआ और आप उसे देख कर भी जिंदा हैं तो कैसे ? ...न मैं शांत बैठूंगा, न आपको बैठने दूंगा।... मैं पांव पैदल सारी जगहों पर भटकूंगा और हर कंकाल से पूछूंगा कि उसके साथ क्या हुआ... मेरे भीतर ऐसी आग धधक रही है जो मुझे तब तक शांति से बैठने नहीं देगी जब तक मैं इस पागलपन का कोई इलाज न खोज लूं। और अगर मुझे यह पता चला कि मेरे साथी मुझे धोखा दे रहे हैं तो मैं उबल ही पडूंगा और आंधी-तूफान कुछ भी हो, मैं नंगे पांव चलता ही जाऊंगा..."

प्रिय नरेंद्र भाई, अपने अल्पसंख्यकों के प्रति किसी सरकार का क्या धर्म है इसकी गांधीजी की परिकल्पना का थोड़ा अंदाजा आपको इससे होगा।

सौजन्य: गांधी-मार्ग, जनवरी-फरवरी, 2020